हम न कहते थे शाइरी है वबाल
आज लो घिर गए हसीनों में
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वो तो कहिए आज भी ज़ंजीर में झंकार है
कार्ल मार्क्स
फ़नकार के काम आई न कुछ दीदा-वरी भी
उम्र की रौ बदल गई शायद
ये ज़िंदगी की रात है तारीक किस क़दर
दिल परेशाँ है न जाने किस लिए
न पूछो बेबसी उस तिश्ना-लब की
अरे ओ अदीब-ए-फ़सुर्दा-ख़ू अरे ओ मुग़न्नी-ए-रंग ओ बू
क़िर्तास पे नक़्शे हमें क्या क्या नज़र आए
किस ने बसाया था और उन को किस ने यूँ बर्बाद किया
हारने जीतने से कुछ नहीं होता 'वामिक़'
शमएँ रौशन हैं आबगीनों में