किस ने बसाया था और उन को किस ने यूँ बर्बाद किया
अपने लहू की बू आती है इन उजड़े बाज़ारों से
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माँ
देखिए कब राह पर ठीक से उट्ठें क़दम
शमएँ रौशन हैं आबगीनों में
देहली
हो रही है दर-ब-दर ऐसी जबीं-साई कि बस
बदलती रहती हैं क़द्रें रहील-ए-वक़्त के साथ
दिल के वीराने को यूँ आबाद कर लेते हैं हम
लाख आबाद-ए-तमन्ना हो के दिल
ख़ूनी क़िला
वो तन्हा मेरे ही दरपय नहीं है
हमारे मय-कदे का अब निज़ाम बदलेगा
हम न कहते थे शाइरी है वबाल