ये महफ़िल आज ना-अहलों से जो मामूर है 'वासिफ़'
उसी महफ़िल में कोई जौहर-ए-क़ाबिल भी आएगा
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किसी को याद कर के एक दिन ख़ल्वत में रोया था
दीदार से पहले ही क्या हाल हुआ दिल का
बुझते हुए चराग़ फ़रोज़ाँ करेंगे हम
वो जिस की जुस्तुजू-ए-दीद में पथरा गईं आँखें
नहीं मालूम कितने हो चुके हैं इम्तिहाँ अब तक
जो रंग-ए-इश्क़ से फ़ारिग़ हो उस को दिल नहीं कहते
खुलने ही लगे उन पर असरार-ए-शबाब आख़िर
ख़ुदा के सामने जो सर यक़ीं के साथ झुक जाए
किसी के इश्क़ का ये मुस्तक़िल आज़ार क्या कहना
तिरी उल्फ़त में जितनी मेरी ज़िल्लत बढ़ती जाती है
क़िस्मत की तीरगी की कहानी न पूछिए