जो रंग-ए-इश्क़ से फ़ारिग़ हो उस को दिल नहीं कहते
जो मौजों से न टकराए उसे साहिल नहीं कहते
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ये महफ़िल आज ना-अहलों से जो मामूर है 'वासिफ़'
भरम उस का ही ऐ मंसूर तू ने रख लिया होता
दीदार से पहले ही क्या हाल हुआ दिल का
क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
ज़ुलेख़ा के वक़ार-ए-इश्क़ को सहरा से क्या निस्बत
कितनी घटाएँ आईं बरस कर गुज़र गईं
क्या ग़म जो हसरतों के दिए बुझ गए तमाम
नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है
पाँव ज़ख़्मी हुए और दूर है मंज़िल 'वासिफ़'
अगर ख़ू-ए-तहम्मुल हो तो कोई ग़म नहीं होता
नहीं मालूम कितने हो चुके हैं इम्तिहाँ अब तक
किसी को याद कर के एक दिन ख़ल्वत में रोया था