कितनी घटाएँ आईं बरस कर गुज़र गईं
शोला हमारे दिल का बुझाया न जा सका
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क़िस्मत की तीरगी की कहानी न पूछिए
तिरी उल्फ़त में जितनी मेरी ज़िल्लत बढ़ती जाती है
दीदार से पहले ही क्या हाल हुआ दिल का
आज रुख़्सत हो गया दुनिया से इक बीमार-ए-ग़म
ये तूफ़ान-ए-हवादिस और तलातुम बाद ओ बाराँ के
वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे
क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
बयाँ ऐ हम-नशीं ग़म की हिकायत और हो जाती
भरम उस का ही ऐ मंसूर तू ने रख लिया होता
नहीं मालूम कितने हो चुके हैं इम्तिहाँ अब तक