क्या ग़म जो हसरतों के दिए बुझ गए तमाम
दाग़ों से आज घर में चराग़ाँ करेंगे हम
Gulzar
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आज रुख़्सत हो गया दुनिया से इक बीमार-ए-ग़म
वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे
पाँव ज़ख़्मी हुए और दूर है मंज़िल 'वासिफ़'
भरम उस का ही ऐ मंसूर तू ने रख लिया होता
वो जिस की जुस्तुजू-ए-दीद में पथरा गईं आँखें
इज़्ज़त उन्हें मिली वही आख़िर बड़े रहे
किसी के इश्क़ का ये मुस्तक़िल आज़ार क्या कहना
वो जल्वा तूर पर जो दिखाया न जा सका
कभी दर्द-आश्ना तेरा भी क़ल्ब शादमाँ होगा
खुलने ही लगे उन पर असरार-ए-शबाब आख़िर
दामन के दाग़ अश्क-ए-नदामत ने धो दिए
तिरी उल्फ़त में जितनी मेरी ज़िल्लत बढ़ती जाती है