आज रुख़्सत हो गया दुनिया से इक बीमार-ए-ग़म
दर्द ऐसा दिल में उट्ठा जान ले कर ही गया
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Gulzar
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Faiz Ahmad Faiz
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तिरी उल्फ़त में जितनी मेरी ज़िल्लत बढ़ती जाती है
दामन के दाग़ अश्क-ए-नदामत ने धो दिए
कहते हैं सर-ए-राह मुनासिब नहीं मिलना
ये तूफ़ान-ए-हवादिस और तलातुम बाद ओ बाराँ के
इज़्ज़त उन्हें मिली वही आख़िर बड़े रहे
हम-सफ़र थम तो सही दिल को सँभालूँ तो चलूँ
वफ़ूर-ए-बे-ख़ुदी में रख दिया सर उन के क़दमों पर
जो रंग-ए-इश्क़ से फ़ारिग़ हो उस को दिल नहीं कहते
ज़ुलेख़ा के वक़ार-ए-इश्क़ को सहरा से क्या निस्बत
वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे
क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
ज़र्रा हरीफ़-ए-मेहर दरख़्शाँ है आज कल