वफ़ूर-ए-बे-ख़ुदी में रख दिया सर उन के क़दमों पर
वो कहते ही रहे 'वासिफ़' ये महफ़िल है ये महफ़िल है
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वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे
दामन के दाग़ अश्क-ए-नदामत ने धो दिए
इज़्ज़त उन्हें मिली वही आख़िर बड़े रहे
वो जल्वा तूर पर जो दिखाया न जा सका
कभी दर्द-आश्ना तेरा भी क़ल्ब शादमाँ होगा
क्या ग़म जो हसरतों के दिए बुझ गए तमाम
नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है
कितनी घटाएँ आईं बरस कर गुज़र गईं
जो रंग-ए-इश्क़ से फ़ारिग़ हो उस को दिल नहीं कहते
क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
ज़ुलेख़ा के वक़ार-ए-इश्क़ को सहरा से क्या निस्बत
बुझते हुए चराग़ फ़रोज़ाँ करेंगे हम