बहुत अच्छा हुआ आँसू न निकले मेरी आँखों से
बपा महफ़िल में इक ताज़ा क़यामत और हो जाती
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नहीं मालूम कितने हो चुके हैं इम्तिहाँ अब तक
वफ़ूर-ए-बे-ख़ुदी में रख दिया सर उन के क़दमों पर
क़िस्मत की तीरगी की कहानी न पूछिए
आज रुख़्सत हो गया दुनिया से इक बीमार-ए-ग़म
नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है
ख़ुदा के सामने जो सर यक़ीं के साथ झुक जाए
वो जल्वा तूर पर जो दिखाया न जा सका
ज़र्रा हरीफ़-ए-मेहर दरख़्शाँ है आज कल
भरम उस का ही ऐ मंसूर तू ने रख लिया होता
किसी के इश्क़ का ये मुस्तक़िल आज़ार क्या कहना
हरीम-ए-नाज़ को हम ग़ैर की महफ़िल नहीं कहते
ये तूफ़ान-ए-हवादिस और तलातुम बाद ओ बाराँ के