भरम उस का ही ऐ मंसूर तू ने रख लिया होता
किसी का राज़ ऐ नादाँ सर-ए-महफ़िल नहीं कहते
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नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है
कहते हैं सर-ए-राह मुनासिब नहीं मिलना
क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
जो रंग-ए-इश्क़ से फ़ारिग़ हो उस को दिल नहीं कहते
वो जल्वा तूर पर जो दिखाया न जा सका
किसी को याद कर के एक दिन ख़ल्वत में रोया था
ज़र्रा हरीफ़-ए-मेहर दरख़्शाँ है आज कल
पाँव ज़ख़्मी हुए और दूर है मंज़िल 'वासिफ़'
खुलने ही लगे उन पर असरार-ए-शबाब आख़िर
आज रुख़्सत हो गया दुनिया से इक बीमार-ए-ग़म
कितनी घटाएँ आईं बरस कर गुज़र गईं
वफ़ूर-ए-बे-ख़ुदी में रख दिया सर उन के क़दमों पर