पाँव ज़ख़्मी हुए और दूर है मंज़िल 'वासिफ़'
ख़ून-ए-असलाफ़ की अज़्मत को जगा लूँ तो चलूँ
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वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे
ख़ुदा के सामने जो सर यक़ीं के साथ झुक जाए
आज रुख़्सत हो गया दुनिया से इक बीमार-ए-ग़म
कहते हैं सर-ए-राह मुनासिब नहीं मिलना
कितनी घटाएँ आईं बरस कर गुज़र गईं
दीदार से पहले ही क्या हाल हुआ दिल का
बयाँ ऐ हम-नशीं ग़म की हिकायत और हो जाती
हल्की सी ख़लिश दिल में निगाहों में उदासी
क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
ज़र्रा हरीफ़-ए-मेहर दरख़्शाँ है आज कल
जो रंग-ए-इश्क़ से फ़ारिग़ हो उस को दिल नहीं कहते
क़िस्मत की तीरगी की कहानी न पूछिए