हल्की सी ख़लिश दिल में निगाहों में उदासी
शायद यूँही होती है मोहब्बत की शुरूआत
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तिरी उल्फ़त में जितनी मेरी ज़िल्लत बढ़ती जाती है
नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है
जो रंग-ए-इश्क़ से फ़ारिग़ हो उस को दिल नहीं कहते
बहुत अच्छा हुआ आँसू न निकले मेरी आँखों से
क़िस्मत की तीरगी की कहानी न पूछिए
बुझते हुए चराग़ फ़रोज़ाँ करेंगे हम
ये महफ़िल आज ना-अहलों से जो मामूर है 'वासिफ़'
ज़ुलेख़ा के वक़ार-ए-इश्क़ को सहरा से क्या निस्बत
हरीम-ए-नाज़ को हम ग़ैर की महफ़िल नहीं कहते
क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
भरम उस का ही ऐ मंसूर तू ने रख लिया होता