बुझते हुए चराग़ फ़रोज़ाँ करेंगे हम
तुम आओगे तो जश्न-ए-चराग़ाँ करेंगे हम
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बहुत अच्छा हुआ आँसू न निकले मेरी आँखों से
वफ़ूर-ए-बे-ख़ुदी में रख दिया सर उन के क़दमों पर
क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
दामन के दाग़ अश्क-ए-नदामत ने धो दिए
अगर ख़ू-ए-तहम्मुल हो तो कोई ग़म नहीं होता
ये महफ़िल आज ना-अहलों से जो मामूर है 'वासिफ़'
दीदार से पहले ही क्या हाल हुआ दिल का
क्या ग़म जो हसरतों के दिए बुझ गए तमाम
वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे
ज़ुलेख़ा के वक़ार-ए-इश्क़ को सहरा से क्या निस्बत
कितनी घटाएँ आईं बरस कर गुज़र गईं