नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है
परी जैसे कोई हाथों में ले कर जाम आती है
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ख़ुदा के सामने जो सर यक़ीं के साथ झुक जाए
वो जल्वा तूर पर जो दिखाया न जा सका
अगर ख़ू-ए-तहम्मुल हो तो कोई ग़म नहीं होता
भरम उस का ही ऐ मंसूर तू ने रख लिया होता
बुझते हुए चराग़ फ़रोज़ाँ करेंगे हम
हम-सफ़र थम तो सही दिल को सँभालूँ तो चलूँ
बहुत अच्छा हुआ आँसू न निकले मेरी आँखों से
ज़र्रा हरीफ़-ए-मेहर दरख़्शाँ है आज कल
कभी दर्द-आश्ना तेरा भी क़ल्ब शादमाँ होगा
वफ़ूर-ए-बे-ख़ुदी में रख दिया सर उन के क़दमों पर
वो जिस की जुस्तुजू-ए-दीद में पथरा गईं आँखें