ख़ुशी के दौर तो मेहमाँ थे आते जाते रहे
उदासी थी कि हमेशा हमारे घर में रही
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अता-ए-अब्र से इंकार करना चाहिए था
उस इमारत को गिरा दो जो नज़र आती है
समुंदर हो तो उस में डूब जाना भी रवा है
दरिया की रवानी वही दहशत भी वही है
मैं अब उस हर्फ़ से कतरा रही हूँ
उस के शिकस्ता वार का भी रख लिया भरम
अपनी निगाह पर भी करूँ ए'तिबार क्या
अगर इतनी मुक़द्दम थी ज़रूरत रौशनी की
जो डुबोएगी न पहुँचाएगी साहिल पे हमें
हम ने किसी को अहद-ए-वफ़ा से रिहा किया
जिस सम्त की हवा है उसी सम्त चल पड़ें