इसी पे शहर की सारी हवाएँ बरहम थीं
कि इक दिया मिरे घर की मुंडेर पर भी था
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ख़्वाब आईना कर रही है दिल में
आँख में ठहरा हुआ सपना बिखर भी जाएगा
उसी हरीफ़ की ग़ारत-गरी का डर भी था
हर नज़र में है असासा अपना
क्या रूप बरस रहा है
कितने पेच-ओ-ताब में ज़ंजीर होना है मुझे
पहले मैं तेरी नज़र में आया
इसी खंडर में मिरे ख़्वाब की गली भी थी