खाँसती मद्धम सी इक आवाज़ जब से खो गई
ग़ैरियत की बू से महका मुझ को अपना घर मिला
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झूट के पाँव
दर्द की ख़ुशबू से ये महका रहा
हर लहज़ा मिरी ज़ीस्त मुझे बार-ए-गराँ है
वाहिमा
ख़ुद-फ़रेबी
बे-सदा क्यूँ गुज़रते हो आवाज़ दो
देखा तो ज़िंदगी में बहुत कामयाब थे
तेरी यादें भी नहीं ग़म भी नहीं तू भी नहीं
दिल में जब कभी तेरी याद सो गई होगी
घुटी घुटी ही सही मेरी चाह ले लेना
शब पलंग पर हाँपते साए रहे