Ghazals of Zafar Iqbal (page 3)

Ghazals of Zafar Iqbal (page 3)
नामज़फ़र इक़बाल
अंग्रेज़ी नामZafar Iqbal
जन्म की तारीख1933
जन्म स्थानOkara, Pakistan

कुछ सबब ही न बने बात बढ़ा देने का

कुछ नहीं समझा हूँ इतना मुख़्तसर पैग़ाम था

कुछ दिनों से जो तबीअत मिरी यकसू कम है

कुछ भी न उस की ज़ीनत-ओ-ज़ेबाई से हुआ

कोई किनाया कहीं और बात करते हुए

किसी नई तरहा की रवानी में जा रहा था

किस नए ख़्वाब में रहता हूँ डुबोया हुआ मैं

ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का

ख़ुश बहुत फिरते हैं वो घर में तमाशा कर के

खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे

खिड़कियाँ किस तरह की हैं और दर कैसा है वो

ख़ामुशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए

खड़ी है शाम कि ख़्वाब-ए-सफ़र रुका हुआ है

कैसी रुकी हुई थी रवानी मिरी तरफ़

कभी अव्वल नज़र आना कभी आख़िर होना

कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे

जो नारवा था इस को रवा करने आया हूँ

जो बंदा-ए-ख़ुदा था ख़ुदा होने वाला है

जिस्म के रेगज़ार में शाम-ओ-सहर सदा करूँ

जिस ने नफ़रत ही मुझे दी न 'ज़फ़र' प्यार दिया

जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता

जहाँ निगार-ए-सहर पैरहन उतारती है

जहाँ मेरे न होने का निशाँ फैला हुआ है

जहाँ लम्हा-ए-शाम बिखेर दिया

इतना ठहरा हुआ माहौल बदलना पड़ जाए

इसे मंज़ूर नहीं छोड़ झगड़ता क्या है

ईमाँ के साथ ख़ामी-ए-ईमाँ भी चाहिए

इल्ज़ाम एक ये भी उठा लेना चाहिए

हम ने आवाज़ न दी बर्ग ओ नवा होते हुए

हज़ार बंदिश-ए-औक़ात से निकलता है

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