Ghazals of Zafar Iqbal (page 2)

Ghazals of Zafar Iqbal (page 2)
नामज़फ़र इक़बाल
अंग्रेज़ी नामZafar Iqbal
जन्म की तारीख1933
जन्म स्थानOkara, Pakistan

रुख़-ए-ज़ेबा इधर नहीं करता

रह रह के ज़बानी कभी तहरीर से हम ने

रफ़्ता रफ़्ता लग चुके थे हम भी दीवारों के साथ

फिर कोई शक्ल नज़र आने लगी पानी पर

पता चला कोई गिर्दाब से गुज़रते हुए

परियों ऐसा रूप है जिस का लड़कों ऐसा नाँव

पैदा ये ग़ुबार क्यूँ हुआ है

पाए हुए इस वक़्त को खोना ही बहुत है

नहीं कि तेरे इशारे नहीं समझता हूँ

नहीं कि दिल में हमेशा ख़ुशी बहुत आई

न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है

न कोई ज़ख़्म लगा है न कोई दाग़ पड़ा है

न कोई बात कहनी है न कोई काम करना है

न गुमाँ रहने दिया है न यक़ीं रहने दिया

न घाट है कोई अपना न घर हमारा हुआ

मुस्तरद हो गया जब तेरा क़ुबूला हुआ मैं

मिलूँ उस से तो मिलने की निशानी माँग लेता हूँ

मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया

मिरे निशान बहुत हैं जहाँ भी होता हूँ

मेरे अंदर वो मेरे सिवा कौन था

मौसम का हाथ है न हवा है ख़लाओं में

मक़्बूल-ए-अवाम हो गया मैं

मैं ने कब दावा किया था सर-ब-सर बाक़ी हूँ मैं

मैं ज़र्द आग न पानी के सर्द डर में रहा

मैं भी शरीक-ए-मर्ग हूँ मर मेरे सामने

लर्ज़िश-ए-पर्दा-ए-इज़हार का मतलब क्या है

लहर की तरह किनारे से उछल जाना है

लब पे तकरीम-ए-तमन्ना-ए-सुबुक-पाई है

कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है

कुछ उस ने सोचा तो था मगर काम कर दिया था

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