Ghazals of Zafar Iqbal

Ghazals of Zafar Iqbal
नामज़फ़र इक़बाल
अंग्रेज़ी नामZafar Iqbal
जन्म की तारीख1933
जन्म स्थानOkara, Pakistan

ज़िंदा भी ख़ल्क़ में हूँ मरा भी हुआ हूँ मैं

ज़मीं पे एड़ी रगड़ के पानी निकालता हूँ

'ज़फ़र' फ़सानों कि दास्तानों में रह गए हैं

यूँ तो किस चीज़ की कमी है

यूँ तो है ज़ेर-ए-नज़र हर माजरा देखा हुआ

यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए

ये ज़मीन आसमान का मुमकिन

ये नहीं कहता कि दोबारा वही आवाज़ दे

ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो

ये बात अलग है मिरा क़ातिल भी वही था

यक़ीं की ख़ाक उड़ाते गुमाँ बनाते हैं

यकसू भी लग रहा हूँ बिखरने के बावजूद

यहाँ सब से अलग सब से जुदा होना था मुझ को

यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला

वो एक तरहा से इक़रार करने आया था

वही मिरे ख़स-ओ-ख़ाशाक से निकलता है

वीराँ थी रात चाँद का पत्थर सियाह था

उठ और फिर से रवाना हो डर ज़ियादा नहीं

उसी से आए हैं आशोब आसमाँ वाले

तिलिस्म-ए-होश-रुबा में पतंग उड़ती है

थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते

तिरे रास्तों से जभी गुज़र नहीं कर रहा

तिरे लबों पे अगर सुर्ख़ी-ए-वफ़ा ही नहीं

तिरे आसमाँ की ज़मीं हो गया हूँ

तक़ाज़ा हो चुकी है और तमन्ना हो रहा है

सोचता हूँ कि अपनी रज़ा के लिए छोड़ दूँ

सिर्फ़ आँखें थीं अभी उन में इशारे नहीं थे

सिमटने की हवस क्या थी बिखरना किस लिए है

शब भर रवाँ रही गुल-ए-महताब की महक

सफ़र कठिन ही सही जान से गुज़रना क्या

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