जैसे जैसे आगही बढ़ती गई वैसे 'ज़हीर'
ज़ेहन ओ दिल इक दूसरे से मुंफ़सिल होते गए
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उस के अल्फ़ाज़-ए-तसल्ली ने रुलाया मुझ को
हाँ वो मैं ही था कि जिस ने ख़्वाब ढोया सुब्ह तक
हर गुल-ए-ताज़ा हमारे हाथ पर बैअत करे
दर्द तो ज़ख़्म की पट्टी के हटाने से उठा
ख़्वाब-गाहों से अज़ान-ए-फ़ज्र टकराती रही
न जाने हम से गिला क्यूँ है तिश्ना-कामों को
जो हौसला हो तो हल्की है दोपहर की धूप
इतने चेहरों में मुझे है एक चेहरे की तलाश
असीर-ए-ज़ात-ए-रौशनी
चंद मोहमल सी लकीरें ही सही इफ़्शा रहूँ
वजूद उस का कभी भी न लुक़्मा-ए-तर था