न जाने हम से गिला क्यूँ है तिश्ना-कामों को
हमारे हाथ में मय थी न दौर-ए-साग़र था
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ज़र्रे ज़र्रे में बिखर जाना है तकमील-ए-हयात
हर गुल-ए-ताज़ा हमारे हाथ पर बैअत करे
इतने चेहरों में मुझे है एक चेहरे की तलाश
जैसे जैसे आगही बढ़ती गई वैसे 'ज़हीर'
दर्द तो ज़ख़्म की पट्टी के हटाने से उठा
मकीन ही अजीब हैं
बे-बर्ग-ओ-बार राह में सूखे दरख़्त थे
हाँ वो मैं ही था कि जिस ने ख़्वाब ढोया सुब्ह तक
वजूद उस का कभी भी न लुक़्मा-ए-तर था
चंद मोहमल सी लकीरें ही सही इफ़्शा रहूँ