छोटी सी बात पे ख़ुश होना मुझे आता था
पर बड़ी बात पे चुप रहना तुम्ही से सीखा
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क़ुर्बतों से कब तलक अपने को बहलाएँगे हम
उठो कि जश्न-ए-ख़िज़ाँ हम मनाएँ जी भर के
कोई हंगामा सर-ए-बज़्म उठाया जाए
बरसों हुए तुम कहीं नहीं हो
दिल बुझने लगा आतिश-ए-रुख़्सार के होते
बस्ती में कुछ लोग निराले अब भी हैं
वहशत में भी मिन्नत-कश-ए-सहरा नहीं होते
साअतें जो तिरी क़ुर्बत में गिराँ गुज़री थीं
अकेले होने का ख़ौफ़
ये सच है यहाँ शोर ज़ियादा नहीं होता
हम से बढ़ी मसाफ़त-ए-दश्त-ए-वफ़ा कि हम
अब भी कुछ लोग सुनाते हैं सुनाए हुए शेर