उस के ख़त रात भर यूँ पढ़ता हूँ
जैसे कल इम्तिहान हो मेरा
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वो जिस ने आँख अता की है देखने के लिए
बस मैं मायूस होने वाला था
दिल फिर उस कूचे में जाने वाला है
किसी भूके से मत पूछो मोहब्बत किस को कहते हैं
बैठे-बैठे इक दम से चौंकाती है
इस दर का हो या उस दर का हर पत्थर पत्थर है लेकिन
ऊँचे नीचे घर थे बस्ती में बहुत
रास्ते जो भी चमक-दार नज़र आते हैं
अब उस का वस्ल महँगा चल रहा है
अपना कंगन समझ रहे हो क्या
शायद क़ज़ा ने मुझ को ख़ज़ाना बना दिया
तुम्हारा सिर्फ़ हवाओं पे शक गया होगा