इन परी-रूयों की ऐसी ही अगर कसरत रही
थोड़े अर्सा में परिस्ताँ आगरा हो जाएगा
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हम न कहते थे कि सौदा ज़ुल्फ़ का अच्छा नहीं
सर्व-क़द लाला-रुख़ ओ ग़ुंचा-दहन याद आया
तिरे जलाल से ख़ुर्शीद को ज़वाल हुआ
शिद्दत-ए-ज़ात ने ये हाल बनाया अपना
निगाहों में इक़रार सारे हुए हैं
बुत नज़र आएँगे माशूक़ों की कसरत होगी
नुमूद-ए-क़ुदरत-ए-पर्वरदिगार हम भी हैं
मय-कशो देर है क्या दौर चले बिस्मिल्लाह
हमें तो उन की मोहब्बत है कोई कुछ समझे
बुत-ए-ग़ुंचा-दहन पे निसार हूँ मैं नहीं झूट कुछ इस में ख़ुदा की क़सम
हाथ दोनों मिरी गर्दन में हमाइल कीजे
मलते हैं हाथ, हाथ लगेंगे अनार कब