हमें तो उन की मोहब्बत है कोई कुछ समझे
हमारे साथ मोहब्बत उन्हें नहीं तो नहीं
Allama Iqbal
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वो कहते हैं उट्ठो सहर हो गई
जी चाहता है उस बुत-ए-काफ़िर के इश्क़ में
ख़ुद मज़ेदार तबीअ'त है तो सामाँ कैसा
शराब पीते हैं तो जागते हैं सारी रात
देखो तो एक जा पे ठहरती नहीं नज़र
मद्दाह हूँ मैं दिल से मोहम्मद की आल का
मय-कशो देर है क्या दौर चले बिस्मिल्लाह
हमारे सामने कुछ ज़िक्र ग़ैरों का अगर होगा
इन परी-रूयों की ऐसी ही अगर कसरत रही
चाहत ग़म्ज़े जता रही है
मुद्दत के बा'द इस ने लिखा मेरे नाम ख़त
तवाफ़-ए-काबा को क्या जाएँ हज नहीं वाजिब