जी चाहता है उस बुत-ए-काफ़िर के इश्क़ में
तस्बीह तोड़ डालिए ज़ुन्नार देख कर
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बुत-ए-ग़ुंचा-दहन पे निसार हूँ मैं नहीं झूट कुछ इस में ख़ुदा की क़सम
इन परी-रूयों की ऐसी ही अगर कसरत रही
कुछ ऐसी पिला दे मुझे ऐ पीर-ए-मुग़ाँ आज
देखो तो एक जा पे ठहरती नहीं नज़र
दौर साग़र का चले साक़ी दोबारा एक और
देखिए पार हो किस तरह से बेड़ा अपना
तिरे जलाल से ख़ुर्शीद को ज़वाल हुआ
किसी को कोसते क्यूँ हो दुआ अपने लिए माँगो
वादा-ए-बादा-ए-अतहर का भरोसा कब तक
सनम-परस्ती करूँ तर्क क्यूँकर ऐ वाइ'ज़
नहीं मुमकिन कि तिरे हुक्म से बाहर मैं हूँ
जुनूँ के हाथ से है इन दिनों गरेबाँ तंग