जुनूँ के हाथ से है इन दिनों गरेबाँ तंग
क़बा पुकारती है तार तार हम भी हैं
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मलते हैं हाथ, हाथ लगेंगे अनार कब
हमारे सामने कुछ ज़िक्र ग़ैरों का अगर होगा
बुत-ए-ग़ुंचा-दहन पे निसार हूँ मैं नहीं झूट कुछ इस में ख़ुदा की क़सम
शिकायत मुझ को दोनों से है नासेह हो कि वाइज़ हो
आँखों पे वो ज़ुल्फ़ आ रही है
देखो तो एक जा पे ठहरती नहीं नज़र
कुछ ऐसी पिला दे मुझे ऐ पीर-ए-मुग़ाँ आज
ख़ुद मज़ेदार तबीअ'त है तो सामाँ कैसा
ओ सितमगर तिरी तलवार का धब्बा छट जाए
मय-कशों में न कोई मुझ सा नमाज़ी होगा
ज़ाहिदो कअ'बे की जानिब खींचते हो क्यूँ मुझे
जी चाहता है उस बुत-ए-काफ़िर के इश्क़ में