सड़क पे चलते हुए आँखें बंद रखता हूँ
तिरे जमाल का ऐसा मज़ा पड़ा है मुझे
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अक़्द-नामे
दयार-ए-ख़्वाब
आवारा परछाइयाँ
ख़ुदा की जगह ख़ाली है
तलाश जिन को हमेशा बुज़ुर्ग करते रहे
जिस से मिल बैठे लगी वो शक्ल पहचानी हुई
हमें भी आज ही करना था इंतिज़ार उस का
क़िस्सा-गो
तेज़ी से बीतते हुए लम्हों के साथ साथ
घर की हद में सहरा है
दिल देता है हिर-फिर के उसी दर पे सदाएँ
तय-शुदा मौसम