तेज़ी से बीतते हुए लम्हों के साथ साथ
जीने का इक अज़ाब लिए भागते रहे
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पहले ही क्या कम तमाशे थे यहाँ
सवाल करती कई आँखें मुंतज़िर हैं यहाँ
आँगन में छोड़ आए थे जो ग़ार देख लें
सभी को अपना समझता हूँ क्या हुआ है मुझे
घर की हद में सहरा है
अजीब ख़्वाब था ताबीर क्या हुई उस की
आवारा परछाइयाँ
हवाएँ तेज़ थीं ये तो फ़क़त बहाने थे
सफ़र तो पहले भी कितने किए मगर इस बार
तय-शुदा मौसम
परछाइयाँ पकड़ने वाले
तुम ने लिक्खा है लिखो कैसा हूँ मैं