मसरूफ़ हैं कुछ इतने कि हम कार-ए-मोहब्बत
आग़ाज़ तो कर लेते हैं जारी नहीं रखते
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जो भी मिन-जुम्ला-ए-अश्जार नहीं हो सकता
घर पहुँचता है कोई और हमारे जैसा
ये ज़मीं तो है किसी काग़ज़ी कश्ती जैसी
कुंज-ए-ग़ज़ल न क़ैस का वीराना चाहिए
ये किस के ख़ौफ़ का गलियों में ज़हर फैल गया
डूब कर भी न पड़ा फ़र्क़ गिराँ-जानी में
रात कमरे में न था मेरे अलावा कोई
चराग़-ए-सुब्ह जला कोई ना-शनासी में
अजब सौदा-ए-वहशत है दिल-ए-ख़ुद-सर में रहता है
अब अधूरे इश्क़ की तकमील ही मुमकिन नहीं
हिज्र को हौसला और वस्ल को फ़ुर्सत दरकार
शजर समझ के मिरा एहतिराम करते हैं