न ख़्वाब ही से जगाया न इंतिज़ार किया
हम इस दफ़अ भी चले आए चूम कर उस को
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रात कमरे में न था मेरे अलावा कोई
मैं जिस सुकून से बैठा हूँ इस किनारे पर
ये मौज मौज बनी किस की शक्ल सी 'ताबिश'
शब की शब कोई न शर्मिंदा-ए-रुख़स्त ठहरे
हम हैं सूखे हुए तालाब पे बैठे हुए हंस
इतना आसाँ नहीं मसनद पे बिठाया गया मैं
मेरे आ'साब मोअ'त्तल नहीं होने देंगे
मकीं जब नींद के साए में सुस्ताने लगें 'ताबिश'
पहले तो हम छान आए ख़ाक सारे शहर की
दहन खोलेंगी अपनी सीपियाँ आहिस्ता आहिस्ता
एक मुश्किल सी बहर-तौर बनी होती है
नक़्श सारे ख़ाक के हैं सब हुनर मिट्टी का है