हमारी उम्र से बढ़ कर ये बोझ डाला गया
सो हम बड़ों से बुज़ुर्गों की तरह मिलते हैं
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ऐ मियाँ कौन ये कहता है मोहब्बत की है
किसी को ख़्वाब में अक्सर पुकारते हैं हम
सफ़्हा-ए-ज़ीस्त जब पढूँगा तुम्हें
ज़िंदगी ख़्वाब है और ख़्वाब भी ऐसा कि मियाँ
मैं तिरी मानता लेकिन जो मिरा दिल है ना
हम आज हँसते हुए कुछ अलग दिखाई दिए
ताबीर बताई जा चुकी है
ख़्वाब का इज़्न था ता'बीर-ए-इजाज़त थी मुझे
ना-रसाई ने अजब तौर सिखाए हैं 'अता'
इक रात मैं सो नहीं सका था
पहले हम अश्क थे फिर दीदा-ए-नम-नाक हुए
इक अश्क बहा होगा