क्या हुए लोग पुराने जिन्हें देखा भी नहीं
ऐ ज़माने हमें ताख़ीर हुई आने में
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हुई ग़ज़ल ही न कुछ बात बन सकी हम से
ये अक्स आप ही बनते हैं हम से मिलते हैं
कोई गुमाँ हूँ कोई यक़ीं हूँ कि मैं नहीं हूँ
लोग हँसते हैं हमें देख के तन्हा तन्हा
मैं तिरी मानता लेकिन जो मिरा दिल है ना
वो ज़माना है कि अब कुछ नहीं दीवाने में
मैं तो मिट्टी हो रहा था इश्क़ में लेकिन 'अता'
ऐ मियाँ कौन ये कहता है मोहब्बत की है
पहले हम अश्क थे फिर दीदा-ए-नम-नाक हुए
दिल कोई फूल नहीं और सितारा भी नहीं
सफ़्हा-ए-ज़ीस्त जब पढूँगा तुम्हें
ये मिरा वहम तो कुछ और सुना जाता है