Friendship Poetry of Ahmad Faraz (page 2)
नाम | अहमद फ़राज़ |
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अंग्रेज़ी नाम | Ahmad Faraz |
जन्म की तारीख | 1931 |
मौत की तिथि | 2008 |
यूँही मर मर के जिएँ वक़्त गुज़ारे जाएँ
यूँ तो पहले भी हुए उस से कई बार जुदा
ये तबीअत है तो ख़ुद आज़ार बन जाएँगे हम
ये शहर सेहर-ज़दा है सदा किसी की नहीं
ये बे-दिली है तो कश्ती से यार क्या उतरें
ये आलम शौक़ का देखा न जाए
वो दुश्मन-ए-जाँ जान से प्यारा भी कभी था
वहशतें बढ़ती गईं हिज्र के आज़ार के साथ
उस ने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दिया
उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
उस मंज़र-ए-सादा में कई जाल बंधे थे
तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त
तेरी बातें ही सुनाने आए
तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूँ
तिरा क़ुर्ब था कि फ़िराक़ था वही तेरी जल्वागरी रही
तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को
तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तिरी दुहाई न दूँ
सू-ए-फ़लक न जानिब-ए-महताब देखना
सभी कहें मिरे ग़म-ख़्वार के अलावा भी
सब क़रीने उसी दिलदार के रख देते हैं
रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
क़ुर्ब-ए-जानाँ का न मय-ख़ाने का मौसम आया
क़ामत को तेरे सर्व सनोबर नहीं कहा
फिर उसी रहगुज़ार पर शायद
पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफ़ा के मुझे
न तेरा क़ुर्ब न बादा है क्या किया जाए
न सह सका जब मसाफ़तों के अज़ाब सारे
न हरीफ़-ए-जाँ न शरीक-ए-ग़म शब-ए-इंतिज़ार कोई तो हो
ले उड़ा फिर कोई ख़याल हमें
किसी जानिब से भी परचम न लहू का निकला