जिस से ये तबीअत बड़ी मुश्किल से लगी थी
देखा तो वो तस्वीर हर इक दिल से लगी थी
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मुहासरा
न हरीफ़-ए-जाँ न शरीक-ए-ग़म शब-ए-इंतिज़ार कोई तो हो
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
ख़्वाबों के ब्योपारी
मैं ख़ुद को भूल चुका था मगर जहाँ वाले
गिला फ़ुज़ूल था अहद-ए-वफ़ा के होते हुए
मेरी ख़ातिर न सही अपनी अना की ख़ातिर
चाक-पैराहनी-ए-गुल को सबा जानती है
जब तिरी याद के जुगनू चमके
यूँही मर मर के जिएँ वक़्त गुज़ारे जाएँ
रात क्या सोए कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई
हम-सफ़र चाहिए हुजूम नहीं