बंद-ए-क़बा में बाँध लिया ले के दिल मिरा
सीने पे उस के फूल खिला है गुलाब का
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कोई हसीन है मुख़्तार-ए-कार-ख़ाना-ए-इश्क़
नक़्शा लैल-ओ-नहार का खींचा है
तुम गले मिल कर जो कहते हो कि अब हद से न बढ़
आसमाँ खाए तो ज़मीन देखे
वो पारा हूँ मैं जो आग में हूँ वो बर्क़ हूँ जो सहाब में हूँ
कुछ लुत्फ़-ए-सुख़न वक़्त-ए-मुलाक़ात नहीं
मोहब्बत ने 'माइल' किया हर किसी को
ग़फ़लत के तुख़्म बोने वाले उठे
नाज़ कर नाज़ तिरे नाज़ पे है नाज़ मुझे
खड़े हैं मूसा उठाओ पर्दा दिखाओ तुम आब-ओ-ताब-ए-आरिज़
चोरी से दो घड़ी जो नज़ारे हुए तो क्या