मैं ने भी बच्चों को अपनी निस्बत से आज़ाद किया
वो भी अपने हाथों से इंसान बनाना भूल गया
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चाँद में दरवेश है जुगनू में जोगी
मैं फ़तह-ए-ज़ात मंज़र तक न पहुँचा
बाहर इंसानों से नफ़रत है लेकिन
अल्लाह वाला एक क़बीला मेरी निस्बत
कुछ शफ़क़ डूबते सूरज की बचा ली जाए
मिरी आँखों में आ दिल में उतर पैवंद-ए-जाँ हो जा
है वाहिमों का तमाशा यहाँ वहाँ देखो
लफ़्ज़ जब उतरा मिरी आँखें मुनव्वर हो गईं
बहुत छोटा सफ़र था ज़िंदगी का
यहाँ हर लफ़्ज़ मअनी से जुदा है
फूलों में एक रंग है आँखों के नीर का
मैं उस की पहचान हूँ या वो मेरी