सदाएँ जिस्म की दीवार पार करती हैं
कोई पुकार रहा है मगर कहाँ से मुझे
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किराया-दार बदलना तो उस का शेवा था
न पूछ रब्त है क्या उस की दास्ताँ से मुझे
तुयूर थे जो घोंसलों में पैकरों के उड़ गए
हाथों से मेरे छीन कर दिल का मआल ले गई
चले थे भर के रेत जब सफ़र की जिस्म-ओ-जाँ में हम
बन के साहिल की निगाहों में तमाशा हम लोग
करना पड़ा था जिस के लिए ये सफ़र मुझे
बन कर लहू यक़ीन न आए तो देख लें