ज़माने को दूँ क्या कि दामन में मेरे
फ़क़त चंद आँसू हैं वो भी किसी के
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भीड़ के ख़ौफ़ से फिर घर की तरफ़ लौट आया
घबराएँ हवादिस से क्या हम जीने के सहारे निकलेंगे
उठ के उस बज़्म से आ जाना कुछ आसान न था
इक राज़-ए-ग़म-ए-दिल जब ख़ुद रह न सका दिल तक
निकले तिरी महफ़िल से तो साथ न था कोई
रूह अफ़्सुर्दा तबीअत मिरी ग़म-कोश हुई
इक जुनूँ कहिए उसे जो मिरे सर से निकला
अंजाम-ए-कशाकश होगा कुछ देखें तो तमाशा दीवाने
चले बज़्म-ए-दौराँ से जब ज़हर पी के
इक मुंतज़िर-ए-वादा की शम्अ जली होगी
अफ़्साना मोहब्बत का पूरा हो तो कैसे हो
जाने क्या महफ़िल-ए-परवाना में देखा उस ने