हुई न आम जहाँ में कभी हुकूमत-ए-इश्क़
सबब ये है कि मोहब्बत ज़माना-साज़ नहीं
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ला फिर इक बार वही बादा ओ जाम ऐ साक़ी
ग़ुलामी में न काम आती हैं शमशीरें न तदबीरें
यही ज़माना-ए-हाज़िर की काएनात है क्या
तू ऐ असीर-ए-मकाँ ला-मकाँ से दूर नहीं
मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी
तिरा अंदेशा अफ़्लाकी नहीं है
या रब ये जहान-ए-गुज़राँ ख़ूब है लेकिन
फ़िर्क़ा-बंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं
गेसू-ए-ताबदार को और भी ताबदार कर
क्या इश्क़ एक ज़िंदगी-ए-मुस्तआ'र का
अनोखी वज़्अ' है सारे ज़माने से निराले हैं
मिटा दिया मिरे साक़ी ने आलम-ए-मन-ओ-तू