ख़ुदावंदा ये तेरे सादा-दिल बंदे किधर जाएँ
कि दरवेशी भी अय्यारी है सुल्तानी भी अय्यारी
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मस्जिद-ए-क़ुर्तुबा
समुंदर से मिले प्यासे को शबनम
कोई देखे तो मेरी नय-नवाज़ी
मार्च 1907
ख़िरद वाक़िफ़ नहीं है नेक-ओ-बद से
ख़ुदी की शोख़ी ओ तुंदी में किब्र-ओ-नाज़ नहीं
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
जलाल-ए-पादशाही हो कि जमहूरी तमाशा हो
बदल के भेस फिर आते हैं हर ज़माने में
मोहब्बत का जुनूँ बाक़ी नहीं है
ये नुक्ता मैं ने सीखा बुल-हसन से
हुआ न ज़ोर से उस के कोई गरेबाँ चाक