मिलना था इत्तिफ़ाक़ बिछड़ना नसीब था
वो उतनी दूर हो गया जितना क़रीब था
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रंग इस मौसम में भरना चाहिए
जंगल दिखाई देगा अगर ये यहाँ न हों
अपनी आवारा-मिज़ाजी को नया नाम न दो
ये किसी नाम का नहीं होता
कुछ दिन से ज़िंदगी मुझे पहचानती नहीं
तुम को भुला रही थी कि तुम याद आ गए
माँ मुझे देख के नाराज़ न हो जाए कहीं
आग बहते हुए पानी में लगाने आई
मजबूरियों के नाम पे सब छोड़ना पड़ा
वक़्त बर्बाद करती रहती हूँ