ज़रा सी बात पे क्या क्या फ़साना-साज़ी है
मैं ख़ुद भी चाहता कब था कि दास्ताँ न बने
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फ़क़त हर्फ़-ए-तमन्ना क्या है
हम को पहचान कि ऐ बज़म-ए-चमन-ज़ार-ए-वजूद
मैं ने रोका भी नहीं और वो ठहरा भी नहीं
जब हमें इज़्न तमाशा होगा
अब और चलने का इस दिल में हौसला ही न था
इक बर्ग बर्ग दिन की ख़बर चाहिए मुझे
जिसे दरपेश जुदाई हो उसे क्या मालूम
मय-शिकस्ता-दिली ऐ हरीफ़-ए-ज़ौक़-ए-नुमू
दीवार-ए-ख़स्तगी हूँ मुझे हाथ मत लगा
हम ने हर ख़्वाब को ताबीर अता की 'असलम'
उड़ा है रफ़्ता रफ़्ता रंग तस्वीर-ए-मोहब्बत का