वक़्त की सई-ए-मुसलसल कारगर होती गई
ज़िंदगी लहज़ा-ब-लहज़ा मुख़्तसर होती गई
साँस के पर्दों में बजता ही रहा साज़-ए-हयात
मौत के क़दमों की आहट तेज़-तर होती गई
Allama Iqbal
Gulzar
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बर्बाद-ए-तमन्ना पे इताब और ज़ियादा
आज की रात
मुझे जाना है इक दिन
दफ़्न कर सकता हूँ सीने में तुम्हारे राज़ को
कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
तिरे माथे पे ये आँचल तो बहुत ही ख़ूब है लेकिन
नज़्र-ए-अलीगढ़
हुस्न-ओ-इश्क़
आज
न उन का ज़ेहन साफ़ है न मेरा क़ल्ब साफ़ है
दिल को महव-ए-ग़म-ए-दिलदार किए बैठे हैं
नन्ही पुजारन