तूफ़ान-ए-बहर ख़ाक डराता मुझे 'तुराब'
उस से बड़ा भँवर तो सफ़ीने के बीच था
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मेहनत से मिल गया जो दफ़ीने के बीच था
तराश और भी अपने तसव्वुर-ए-रब को
रात वहशत से गुरेज़ाँ था मैं आहू की तरह
हाँ तुझे भी तो मयस्सर नहीं तुझ सा कोई
इश्क़ तो अपने लहू में ही सँवरता है सो हम
कहीं जमाल-पज़ीरी की हद नहीं रखता
वो इक सुख़न ही हमारी सनद न बन जाए
कब कहाँ क्या मिरे दिलदार उठा लाएँगे
तन्हाइयों के दश्त में भागे जो रात भर
चाहिए क्या तुम्हें तोहफ़े में बता दो वर्ना
नुमू-पज़ीर हूँ हर दम कि मुझ में दम है अभी