उठे जाते हैं दीदा-वर सभी आहिस्ता आहिस्ता
ये दुनिया मो'तबर लोगों से ख़ाली होती जाती है
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शिकायत है बहुत लेकिन गिला अच्छा नहीं लगता
घटा ज़ुल्फ़ों की जब से और काली होती जाती है
वो बात मुझ को तो दुश्नाम सी लगी है 'अतीक़'
चुरा के लाए हैं कुछ लोग लफ़्ज़ के मोती
क़रीब से न गुज़र इंतिज़ार बाक़ी रख
ग़म ये नहीं कि ग़म से मुलाक़ात हुई
मसर्रत और ग़म दोनों की कोई हद ज़रूरी है
हर्फ़ लर्ज़ां हैं कि होंटों पे वो आएँ कैसे?