सैलाब-ए-ज़िंदगी के सहारे बढ़े चलो
साहिल पे रहने वालों का नाम-ओ-निशाँ नहीं
Ahmad Faraz
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ख़ामुशी
इस दर्जा हुआ ख़ुश कि डरा दिल से बहुत मैं
कहते हैं ब-सद-नाज़ मिरा नाम न लो
इस तरह कुछ बदल गई है ज़मीं
आज़मा लो कि दिल को चैन आए
बरसों पढ़ कर सरकश रह कर ज़ख़्मी हो कर समझा मैं
ख़ूँ हो के टपकती है तमन्ना देखो
फ़ासले ऐसे कि इक उम्र में तय हो न सकें
सड़कों पे तिरी फिरता था मारा मारा
क्यूँ अंजुमन-ए-ग़ैर में फ़रियाद करें
अजीब दिल में मिरे आज इज़्तिराब सा है!
आईना-ए-महताब लिए आए हैं