न सिकंदर है न दारा है न क़ैसर है न जम
बे-महल ख़ाक में हैं क़स्र बनाने वाले
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जब अयाँ सुब्ह को वो नूर-ए-मुजस्सम हो जाए
पर्दा उलट के उस ने जो चेहरा दिखा दिया
बाद-ए-फ़ना भी है मरज़-ए-इश्क़ का असर
ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है
रंग से पैरहन-ए-सादा हिनाई हो जाए
गया शबाब न पैग़ाम-ए-वस्ल-ए-यार आया
मिसाल-ए-तार-ए-नज़र क्या नज़र नहीं आता
अज़ाँ दी काबे में नाक़ूस दैर में फूँका
लाख पर्दे से रुख़-ए-अनवर अयाँ हो जाएगा
छुप सका दम भर न राज़-ए-दिल फ़िराक़-ए-यार में
बे-बुलाए हुए जाना मुझे मंज़ूर नहीं