पूछा अगर किसी ने मिरा आ के हाल-ए-दिल
बे-इख़्तियार आह लबों से निकल गई
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लब-ए-रंगीं से अगर तू गुहर-अफ़शाँ होता
न सिकंदर है न दारा है न क़ैसर है न जम
किस तरह मिलें कोई बहाना नहीं मिलता
अज़ाँ दी काबे में नाक़ूस दैर में फूँका
हमारे ऐब ने बे-ऐब कर दिया हम को
शम्अ भी इस सफ़ा से जलती है
वहशत में भी रुख़ जानिब-ए-सहरा न करेंगे
ख़ुद-फ़रोशी को जो तू निकले ब-शक्ल-ए-यूसुफ़
ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है
गया शबाब न पैग़ाम-ए-वस्ल-ए-यार आया
मिसाल-ए-तार-ए-नज़र क्या नज़र नहीं आता
लाख पर्दे से रुख़-ए-अनवर अयाँ हो जाएगा